पौरुष ग्रन्थि का बढ़ जाना (ENLARGEMENT OF PROSTATE GLAND), लिंग की चमड़ी उलट जाना, लिंग मुण्ड का न खुलना, (PHIMOSIS), जन्मजात निरुद्धता (CONGENITAL PHIMOSIS)

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  पौरुष ग्रन्थि का बढ़ जाना (ENLARGEMENT OF PROSTATE GLAND) रोग परिचय कारण एवं लक्षण:- इसमें पौरुषग्रन्थि बगैर सूजन के बढ़ जाती है। यह रोग बिना कीटाणुओं के आक्रमण से हो जाता है। यही कारण है कि इसमें दर्द और ज्वर आदि नहीं होता है। प्राय: यह रोग 50 वर्ष की आयु के बाद ही होता है। प्रारम्भ में मूत्र में कुछ कठिनाई और रुकावट सी आती है, बाद में मूत्र बिना कष्ट के, सामान्य रूप से आने लगता है। रोग बढ़ जाने पर मूत्र बार-बार आता है, मूत्राशय मूत्र सें पूरा खाली नहीं होता, कुछ न कुछ मूत्र मूत्राशय में रुका ही रह जाता है। मूत्र करते समय रोगी को ऐसा महसूस होता है कि जैसे कोई चीज मूत्र को बाहर निकलने से रोक रही है। इस रोग के मुख्य कारण अत्यधिक मैथुन तथा अत्यधिक सुरापान है। यह रोग प्रायः तर मौसम (तर जलवायु) में रहने वालों को अधिक हुआ करता है। चिकित्सा:- इस रोग में खट्टे, ठन्डे और तर भोजनों और तरकारियों तथा देर से पचने वाले भोजनों यथा-दही, मट्टा, गोभी, बैंगन, अरबी (घुइयाँ) आदि का पूर्णतयः निषेध है। रोगी को मैथुन न करने की हिदायत दें। 'सोये के तैल' की मालिश करें। यदि औषधियों से रोगी ठीक न हो

श्वास संस्थान के रोगों की चिकित्सा (Treatment of diseases of the respiratory system.)

 श्वास संस्थान के रोगों की चिकित्सा (Treatment of diseases of the respiratory system.)

कास, खाँसी (COUGH)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण:- खाँसी स्वयं में कोई रोग नहीं हैं बल्कि यह अन्य दूसरे रोगों का लक्षण भर है। यह सर्दी, न्यूमोनियां काली खाँसी, तपेदिक, दमा, ब्रोकाइटिस (श्वास नली में सूजन) प्लूरिसी और यकृत की खराबी आदि रोगों से हुआ करती है।

खाँसी के सम्बन्ध में लोकोक्ति प्रचलित है-लड़ाई की जड़ हाँसी और रोगों जड़ है खाँसी। " मोटेतौर पर यह 3 प्रकार की हुआ करती है। नोट:-खाँसी की सदैव गले और फेफड़ों के विकारों से उत्पन्न होती है।

1. सूखी खाँसी।

2. तर (बलगमी) खाँसी।

3. दौरे के रूप में आने वाली खाँसी।

सूखी खाँसी:- इस खाँसी में बलगम नहीं निकलता। बहुत ज्यादा खाँसने पर थोड़ा सा ही बलगम निकल पाता है इस कारण रोगी की छाती में जकड़ाहट, महसूस होती है, ऐसी खाँसी दमा, न्यूमोनियां, तपेदिक, ब्रोंकाइटिस और प्लूरिसी की प्रथम अवस्था में आती है।

तर (बलगमी खाँसी):- इस खाँसी में बलगम जरा सा खाँसने पर आराम से तथा अधिक मात्रा में निकलता है। अधिक बलगम का निकलना अच्छा नहीं होता है। ऐसी खाँसी बढ़ी हुई ब्रोंकाइटिस ( श्वास नलिका प्रादाह) तथा तपेदिक की निशानी मानी जाती है।

दौरे के रूप में आने वाली खाँसी:- दौरा प्रायः काली (कुकुर) खाँसी में होता है।

उपचार:- सूखी खाँसी में गरम जल दें, पूर्ण विश्राम को निर्देशित करें, रोगी को ठन्ड से बचायें। रात्रि में खाँसी बचाव हेतु शाम से पूर्व ही औषधि दें। गले को तर रखने हेतु मिश्री या मुलहठी चुसवायें। मुलहठी, लौंग, अदरक रस को मधु में मिलाकर चटवायें। पुरानी खाँसी में खुली हवा में टहलना, हलका व्यायाम करना, प्रातः भ्रमण करना तथा शीतल जल से स्नान उपयोगी है। सभी प्रकार की खांसी में ऋतु के अनुसार कपड़े पहिनें, तर तथा भीड़भाड़ युक्त स्थानों, मिर्च एवं धूप की गर्द से बचाव रखें, खट्टे खाद्य पदार्थ एवं सिरका आदि न दें। भींगने से भी रोगी को बचावें । विशेषतः छाती एवं सिर में (माथा) रोगी को ठन्ड न लगने दें। ठन्डे मौसम में ठन्डे खाद्य पदार्थ जैसे- गन्ना, सिंघाड़ा, मूंगफली, केला, वर्फ आदि से पूर्णत: परहेज करवायें अचानक सर्दी से गर्मी तथा गर्मी से सर्दी की जगह मैंन जायें क्योंकि ऐसा करने से सर्द-गर्म होने के कारण रोग बढ़ जाता है। खांसी को समूल रूप से नष्ट करने वाली चिकित्सा तत्काल प्रारम्भ करनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि खांसी को बढ़ने का मौका कदापि नहीं देना चाहिए। इसी में बुद्धिमानी है। तीव्र खांसी को अंग्रेजी में Acute Bronchitis तथा पुरानी खांसी को Chronic Bronchitis कहते हैं।

कास नाशक प्रमुख शास्त्रीय प्रयोग

रस:- चन्द्रामत रस कन्टकारी क्वाथ से, महोदधि रस अजादुग्ध से, लक्ष्मी विलास रस आर्द्रक स्वरस से, शृंगाराभ्रक रस उपर्युक्त अनुपान से मधु मिलाकर, बसन्त तिलकरस, श्वास कास चिन्ता मणि रस (सभी रस वात कफज खाँसी में उपयोगी हैं।) अग्नि रस-कफ-पित्तज कास में महामृगांक रस- बात-कफज में, लोकनाथ रस-वात कफज में, समीर पन्नग रस-वात-कफज में, लवंगादि ताल सिन्दूर-वात-कफात्मक कास में बोलबद्ध रस-कफज कास में उपयोगी है। उपयुक्त सभी रसों की मात्रा 125 मि.ग्रा., दिन में 2-3 बार आर्द्रक स्वरस तथा मधु में मिलाकर दें।

लौह-पर्पटी:- समशर्कर लौह 500 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार अजादुग्ध से तथा पिप्लयादि लौह 250 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार मधु से दें। दोनों लौह कफानुबन्धित पित्तज क्षतज में उपयोगी हैं।

ताप्यादि लौह, रस पर्पटी, ताम्र पर्पटी, अभ्रपर्पटी 125 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार मधु से दें। प्रत्येक पर्पटी व लौह वात कास में उपयोगी है।

भस्म:- अभ्रक भस्म 125 मि.ग्रा. मधु+वासा स्वरस से दें। फुफ्फुस दौवर्ल्ड में उपयोगी है। रौप्य भस्म 60 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार वातिक कास में, स्वर्ण भस्म 30 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार पैत्तिक-ज्वर में गोदन्ती भस्म 1 ग्राम दिन में 2-3 बार पैक्तिक ज्वर में। सभी भस्में मधु+वांसा स्वरस से दें।

श्रृंग भस्म 250 मि.ग्रा. दिन में 2/3 श्लैष्मिक कास में आद्रर्क स्वरस मधु से - वज्र भस्म 4 से 8 ग्राम दिन में 1-2 बार अभ्रक+मधु से हृदय फुफ्फुस दौर्बल्य में उपयोगी है।

वैक्रान्त भस्म 15-60 मि.ग्रा. दिन में 12 बार अभ्रक+मधु से वात: कफज में । 

वटी:- भागोत्तर वटी 1-2 गोली दिन में 2 बार मधु शर्बत जूफा वात कफज कास में उपयोगी है।

वासादि वटी 1-2 गोली दिन में 1-2 बार गोजिव्हादि क्वाथ से दें।

कास कर्त्तरी वटी दिन में 1-2 गोली दिन में 2 बार दें। 

एलादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार पित्तज, क्षतज कास में।

लवंगादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार कफज कास में।

मरिच्यादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार कफज कास में। 

व्योषादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार कफज कास में। 

खदिरादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार कफज कास में। 

हरीतक्यादि वटी 2-4 गोली, दिन में 2 बार - कफज कास में। 

वटी चूसने हेतु हैं। 2-4 गोली, दिन में 2 बार चूसें। 

दरदादि वटी मधु से 2-4 गोली, दिन में 2 बार - वातज कास में। 

चूर्ण- सितोपलादि चूर्ण 500 मि.ग्रा. से 1 ग्राम तक धृत+मधु से दें। -पित्तज - कास, तथा सब प्रकार की कास में उपयोगी है। दिन में 2 बार दें। 

चिन्तामणि चूर्ण 2-3 ग्राम दिन में 2 बार धृत+मधु से दें। लाभ उपरोक्त ।मरिच्यादि चूर्ण 2-3 ग्राम, उष्ण जल से-वात-कफजकास में। 

श्रृंगयादि चूर्ण 2-3 ग्राम-उष्ण जल से-वात-कफजकास में। 

तालीसादि चूर्ण 2-3 ग्राम, मधु से - वात-कफजकास में।

लवंगादि चूर्ण 2-3 ग्राम उष्ण जल से-वात-कफजकास में। 

द्विक्षारादि चूर्ण 2-3 ग्राम उष्ण जल से वात-कफजकास में । 

क्वाथ - कट्फलादि क्वाथ 10-20 का क्वाथ बनाकर दिन में 1-2 बार दें । दशमूल क्वाथ उपरोक्त प्रकार से दें। 

कन्टकारीक्वाथ मधु मिलाकर उपरोक्त मात्रा में दें।

पिप्पल्यादि क्वाथ मधु मिलाकर उपरोक्त मात्रा में दें। 

वासादि क्वाथ मधु मिलाकर उपरोक्त मात्रा में दें।

क्षुद्रादि क्वाथ सिता प्रक्षेप कर शुष्क कास में उपरोक्त मात्रा में दें। 

कासह्रास कर क्वाथ सिता प्रक्षेप कर शुष्क कास में उपरोक्त मात्रा में दें।

क्षार - यवक्षार 300 मि.ग्रा. दिन में 2-3 बार सैन्धव+ दशमूल क्वाथ से वात कफज में उपयोगी है।

अपामार्ग क्षार- उपरोक्त की भाँति दें।

शुद्ध नवसादर 250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार मघुष्टि+बच+कन्टकारी क्वाथ से दें। नवसादर कफ को पतला करने में उपयोगी है।

घृत – पिप्पल्यादि घृत, कन्टकारी घृत, कासमर्दादि घृत, दशमषटपल घृत। सभी घृतों की मात्रा 5 ग्राम है। दिन में 1-2 बार अजादुग्ध से दें। कफज कास में उपयोगी है।

अवलेह - पिप्पलयादि लेह कफज कास में, द्राक्षादिलेह पित्तज कास में दें। वासा हरीतक्यावलेह वात व कफज में दें।

कन्टाकर्यावलेह, आर्द्रकावलेह, विभीतकावलेह -वात-कफजकास में दें। भार्ग्यादि लेह' वातिक कास में लाभप्रद है। इन सभी अवलेहों की मात्रा 5 ग्राम दिन में 2 बार अजा दुग्ध से दें। च्यवनप्राश 10 से 15 मि.ग्रा. दिन में 1-2 बार दें। सर्वकास में उपयोगी है। भार्गीगुड़ 1 ग्राम दिन में 2 बार, कुलत्थ गुड़ 5 से 10 मि.ग्रा. दिन में 2 बार। सर्वकास में उपयोगी है।

अगस्त हरीतकी, व्याघ्री हरीत की 5 से 10 मि.ग्रा. दिन में 2 बार दें जीर्णक्षयज कास व व्याघ्री हरीतकी वात कफज में उपयोगी है। यह सभी अजा दुग्ध के साथ सेवनीय है।

आसव एवं अरिष्ट- वासकारिष्ट 15-20 मि.ली. भोजन के बाद समान जल मिलाकर वात व कफज कास में उपयोगी है। 

कनकासव, द्राक्षारिष्ट, बब्बूलारिष्ट, पिप्पल्यादिरिष्ट ये सभी भी अन्य की भाँति सेवनीय हैं तथा लाभ भी उपरोक्त हैं। चित्तचन्दिरासव मात्रा अनुपान उपरोक्त क्षयज कास में उपयोगी है।

धूम्र - मनः शिलादि धूम्र, इंगुदीत्वगादि धूम्र, अर्कादि धूम्र, मरिचादि धूम्र, (वर्ति बनाकर) धूम्र पीवें। सर्वकास में उपयोगी धूम्र हैं।

तैल- चन्दनादि तैल, वासा चन्दनादि तैल-मालिश हेतु ।

कास नाशक चिकित्सा सूत्र - (आयुर्वेदीय मतानुसार ) ।

(अ) वातिक कास- वातिक कास में वातहन तैलों, पेय, यूष, रसादि से स्नेह करें तत्पश्चात् लेह, धूम्र, अभ्यंग, स्वेद, सेंक, अवगाहम, बस्ति का प्रयोग करें। यदि साथ में पित्त का अनुबन्ध हो जो भोजन के साथ घृत एवं दुग्ध का सेवन कराना चाहिए। यदि वातिककास में कफ का अनुबन्ध हो तो स्निग्ध विरेचन देना चाहिए।

(ब) पैत्तिक कास- पैत्तिक कास में कफ होने पर धृत मिलाकर वमन . करावें, यदि कफ पतला हो तो निशोथ और मधुर द्रव्यों के साथ विरेचन करायें । यदि कफ गाढ़ा हो तो तिक्त द्रव्यों के साथ निशोथ देकर विरेचन करायें।

(स) कफज कास- कफज कास में कफ खाँसी वाले बलवान रोगी को पहले वमन करवा कर कफ निकाल देना चाहिए। इसके बाद कटु, रूक्ष, उष्ण तथा कफनाशक अन्नादि का सेवन कराना चाहिए। जौ का सेवन उपयोगी है।

कास नाशक प्रमुख आयुर्वेदीय पेटेन्ट योग

डीकोक्सिन टेबलेट - (अलारसिन) प्रथम सप्ताह में 2-2 गोली दिन में 3 बार तत्पश्चात 3-4 सप्ताह तक 2-2 टिकियां दिन में 2 बार दें। प्रत्येक प्रकार की कास में निरापद तथा प्रभावशाली औषधि है।

सरटीना टेबलेट (चरक) तथा ड्राइकोनील सिरप - 2-2 गोली दिन में 3 बार बड़ों को तथा 1-1 गोली दिन में 3 बार बच्चों को दें। सभी प्रकार की खाँसी में उपयोगी है। क्षयज कास में विशेष उपयोगी है। सिरप 2-3 चम्मच 3-3 घन्टे पर दें ।


कोफोल टेबलेट (चरक) - 5-6 बार दिन में चुसवायें। 

कासना टेबलेट - (राजवैद्य शीतल प्रसाद एन्ड संस दिल्ली) चुसवायें।

कासहर वटी - (धन्वन्तरि कार्याल्य-विजयगढ़ (अलीगढ़) चुसवायें।

कैफ टेबलेट (वैद्यनाथ) - चुसवायें।

कास नाश टेबलेट - (ज्वाला आयुर्वेद-विजयगढ़-अलीगढ़) चुसवायें।

मुलहटी धनसत्व टेबलेट (गर्ग बनौषधि) - 2-3 बार जल के साथ 2-2 गोली दें या मुख में डालकर 3-4 बार चूसें।

झेप्स टेबलेट (झण्डु)- 5-6 बार दिन में चूसें। 

• उपयुक्त सभी गोलियाँ चूसने से सभी तरह की खाँसी में बहुत लाभ मिलता है। 

कासारि सीरप ( धन्वन्तरि कार्यालय) - गर्म जल में डालकर 1-2 चम्मच दिन में 2-3 या खाँसी उठने पर पीयें।

ड्रिकोनिल लिक्विड (चरक) – ½ से ढेड़ चम्मच तक दिन में 2-3 बार । 

कफ सीरप (धूतपापेश्वर ) - 1-2 चम्मच दिन में 3-4 बार। 

इथीकोफ सीरप (मैडीकल इथीक्स) - मात्रा उपर्युक्त । 

कासनाशी सीरप (ज्वाला आयु. ) - मात्रा उपर्युक्त । 

कफ कफ (डाबर) - मात्रा परिपत्र के अनुसार। 

कासामृत सीरज (वैद्यनाथ) - मात्रा परिपत्र के अनुसार ।

कैम्फोकोडी वसाका सीरप (झन्डू) - परिपत्र के अनुसार ।

एलरीना सीरप ( झण्डु ) - ये समस्त सीरप प्रत्येक प्रकार की खाँसी में उपयोगी है। मात्रा प्रत्येक कफ सीरप 1-2 चम्मच दिन में 3-4 बार दें। 

जुकाम हारी (गर्ग बनौषधि) - गरम जल में 2-3 चम्मच डालकर दिन में 2-3 बार दें। जुकाम युक्त खाँसी में बहुत उपयोगी है। 

कासहर सीरप (भजनाश्रम)-

काफोल सीरप (देशरक्षक) - 1-2 चम्मच दिन में 3-4 बार दें। 

सोमा सीरप - ( मार्तड - बड़ौत मेरठ) 1-2 चम्मच दिन में 3-4 बार श्वास जन्य कास में उपयोगी है। इसकी गोलियाँ भी आती है।

श्वास कासारि कैपसूल (जी.ए. मिश्रा) - (1-2 कैपसूल दिन में 3 बार ) श्वास युक्त खाँसी में विशेष उपयोगी है।

अपामार्ग घनसत्व टेबलेट तथा कैपसूल (गर्ग बनौषधि) – परिपत्रानुसार।

सुदूरी सीरप (हमदर्द) - 1-2 चम्मच दिन में 3-4 बार दें।

यष्टी मधु चूर्ण (झण्डु) -1-2 ग्राम दिन में 2-3 बार शहद के साथ चटायें। कफज कास में उपयोगी है।

वांसा सूचीवेध (सिद्धि फार्मेसी - ललितपुर ) – 1-2 मि.ली. मांसपेशी में प्रतिदिन 1 दिन छोड़कर। श्वास, कास, कुकुरकास, प्रतिश्याययुक्त कास में लाभप्रद है।

कन्टकारी सूचीवेध (मिश्रा, बुन्देलखन्ड) - मात्रा उपरोक्त सूखी खाँसी में विशेष लाभप्रद ।

प्रवाल सूचीवेध (सिद्धि, बुन्देलखन्ड) - मात्रा उपरोक्त। हर प्रकार की खाँसी में उपयोगी है। 

खांसीना सूचीवेध (सिद्धि) - हर प्रकार की खाँसी में लाभप्रद है। फुफ्फुसों को ताकतवर बनाकर जमे हुए कफ को बाहर निकाल देता है। मात्रा उपरोक्त।

सोमा सूचीवेध (मार्तड ) - मात्रा उपरोक्त। श्वास जन्य कास में विशेष उपयोगी है। 

तापीकर सूचीवेध (मार्तन्ड-बड़ौत (मेरठ), प्रताप फार्मा देहरादून) - खाँसी निमोनिया, फ्लू में लाभप्रद है।

बसन्त मालती सूचीवेध (बुन्देलखन्ड ) - मात्रा वही। जीर्णकास, क्षजयकास में विशेष लाभप्रद है।

कास नाशक कुछ घरेलू योग

• साधारण खांसी में अदरक का रस निकालकर उसमें थोड़ा शहद तथा जरा सा काला नमक भी मिलाकर चाटें। लाभकारी योग है। 

• साफ की हुई अजवायन 1 ग्राम नित्य रात्रि के समय पान के बीड़े में रखकर खाने से खांसी में लाभ मिलता है।

• क्षय रोग के रोगी को यदि खाँसी के कारण निद्रा न आती हो तो शाम के समय अफीम 1/4 रत्ती को मुनक्का में भरकर निगलवा देने से रात्रि में शान्ति की नींद आती है तथा खाँसी भी बार-बार नहीं उठती है।

• छिलके सहित अखरोट की भस्म कर इसे एक ग्राम-सात ग्राम शहद में मिला कर चटाने से खांसी में लाभ होता है। 

• पान के रस को शहद के साथ चटाने से बच्चों की खाँसी में बहुत लाभ होता है।

• फुलाये हुए सुहागा को (2 रत्ती की मात्रा में) थोड़े से दूध के साथ चटाने से बच्चों की खाँसी में बहुत लाभ होता है।

• दूध 250 ग्राम, पानी 125 ग्राम, हल्दी की एक गाँठ का चूर्ण तथा गुड़ आवश्यकतानुसार लेकर सभी को एक बर्तन में डालकर औटावें और जब औटते- औटते मात्र दूध बचे, पानी जल जाये तो उतार लें तथा छानकर खाँसी के रोगी को गुनगुना -2 पिला दें। परीक्षित प्रयोग है। खाँसी के रोगी को निशिचित आराम मिलेगा।

• दो लौंग (गरम मसाले वाली) को तवे पर भूनकर (गरम तवे पर लोग 1 मिनट में ही फूल कर मोटी नजर आयेगी, तभी उतार लें) तथा पीसकर 1 चम्मच दूध में मिलाकर गुनगुना कर बच्चों को सोते समय पिला देने से खाँसी से छुटकारा मिल जाता है।

• काली मिर्च कूट पीसकर कपड़छन करके रखलें। इसे 2 से 4 ग्रेन तक शहद में मिलाकर प्रतिदिन दो बार चटायें। खाँसी समाप्त हो जायेगी

श्वसनिका शोथ (BRONCHITIS)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- वायुनली के श्लैष्मिक झिल्ली के नये प्रदाह को (सूजन) श्वसनिका शोथ (ब्रोन्काइटिस) कहते हैं। यह रोग अधिकांशतः बच्चों तथा बूढ़ों को होता है। सर्दी लगना, बहुत देर तक गीले-भीगे कपड़े पहिने रहना, बरसाती जल में भीगना तथा ओस में लेटना-बैठना अथवा किसी अन्य दूसरी बीमारी जैसे-टायफायड, कालाजार, मलेरिया, खसरा और काली खांसी आदि के उपद्रव स्वरूप कमजोरी पैदा होकर वायु प्रणाली में शोथ उत्पन्न हो जाती है।

        इस रोग में पहिले सिरदर्द, आलस्य, इसके बाद हल्का बुखार, वक्ष में गर्मी महसूस होना, स्वरभंग तथा श्वासकष्ट आदि लक्षण प्रकट होते हैं। इसकी प्रथम अवस्था में सूखी खाँसी फिर फेनयुक्त बलममी खाँसी तथा अन्त में गाढ़े पीले रंग की बलगमी खाँसी तथा जीभ मैलभरी तथा पेशाब की मात्रा कम हो जाना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। इसकी दूसरी अवस्था में श्वासकष्ट अधिक, गले से धर्र- धर्र की आवाज आना, ज्वर 104 डिग्री तक, ठन्डा लसदार पसीना आना, दोनों गाल-पीले या नीले हो जाना सूखी और रूखी जीभ, पेशाब का कम आना तथा हाथ-पैर ठन्डे हो जाना आदि लक्षण प्रकट होते है।

नोट - इस रोग एवं अवस्था का 4-5 दिन में घट जाना अच्छा होता है, नहीं तो बीमारी बढ़ जाती है। यदि बीमारी वृद्धजनों को हो तो डर की बात होती है। यदि इसका दौरा हृदय या मस्तिष्क पर पड़ जाये तो भी डर है। वैसे यह बीमारी प्रायः उचित चिकित्सा तथा परहेज के फलस्वरूप एक सप्ताह में ठीक हो जाती है।

उपचार- इसमें श्वास- कास, चिन्तामणि रस, श्रृंगाराभ्र चन्द्रामृत रस, सितोपलादि चूर्ण आदि को आर्द्रक रस या शहद से 5 ग्राम दें। कफ न निकलने पर छाती पर स्निग्ध, तीक्ष्ण द्रव्यों का गरम लेप करे। सेहुंड (थूहर ) का पत्ता या आक (मदार) का पत्ता तेल लगाकर गर्म करके छाती के ऊपर बाँध दें। इससे पीड़ा कम होती है तथा कफ ढीला होकर खाँसी शान्त हो जाती है।

    वासावलेह तथा च्यवनप्राश बकरी के दूध में सेवन करायें। एलादि वटी चूसने को दें। शृंगाराभ्र भस्म 120 मि.ग्रा., चन्द्रामृत लौह 240 मि.ग्रा. लाक्षादि चूर्ण 1 ग्राम, सितोपलादि चूर्ण 1 ग्राम, रुदन्ती फल चूर्ण 1 ग्राम तथा स्वर्ण बसन्त मालती 1 रत्ती इन सभी को मिलाकर दिन में 3 बार मधु से चटायें। लाभ होगा।

नोट :-खाँसी रोग क अन्तर्गत लिखी पेटेन्ट आयुर्वेदिक औषधियों से भी लाभ उठाया जा सकता है।

बलगम में खून आना (HAEMOPTYSIS)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- इसमें रोगी को वमन (कै) के साथ में खून भी आया करता है। वमन आने से पूर्व मिचली तथा पेट के ऊपरी भाग में भार (वजन) सा मालूम होता है।

    इसमें साधारणतयः वमन के साथ खून अधिक निकलता है। खून की उल्टी (वमन) होने से पूर्व आमाशय में दर्द और भार मालूम होना, अजीर्ण, मिचली, मुँह का स्वाद नमकीन होना, नाड़ी कमजोर, लम्बी श्वास, सुस्ती, सिर में झुनझुनी आदि लक्षण पैदा होते हैं। मद्यपान से उत्पन्न यकृत का सिरोहिसिस रोग, आमाशय और आँत का व्रण या कैंसर, पान्डु रोग (तिल्ली के कारण) संक्रामक रोग - (चेचक, खसरा, डिफ्थीरिया, इन्फलुएन्जा, सेप्टी सीमिया (रक्त विषमयता) पित्ताशय शोथ, ल्यूकीमिया (रक्तश्वेताणुमयता) और यूरीमिया (मूत्र विषमयता) तीव्र क्षार या अम्ल का सेवन करने से रक्त वमन होता है।

नोट:- खून की उल्टी (वमन) ज्यादा हो जाने से हिमांग अवस्था आ जाती है। फलस्वरूप रोगी का शरीर शीतल होकर मृत्यु हो जाती है।

// रक्त में अन्तर //

आमाशय का खून

खून का रंग कुछ काला तथा बिना फेन का खाया पदार्थ (कभी रक्त) मल के साथ आता है। और कै (वमन) से पूर्व आमाशय में या मिचली हुआ करती है।

फेफड़े का खून

रक्त चमकीला लाल तथा फेन युक्त श्लेष्मा मिला हुआ होता है, मल के साथ खून नहीं रहता एवं खून निकलने से पूर्व श्वास कष्ट तथा छाती का दर्द रहता है।

बच्चों को ग्रांको निमोनियाँ (श्वास प्रणाली प्रदाह) होने के बाद फेफड़े के ऊतकों (Tissues) में फाइब्रोसिस हो जाना, श्वासनलिका या श्रकस की प्राचीर (दीवार) में व्रणयुक्त प्रदाह उत्पन्न होना, क्रानिक ब्रोकाइटिस होना, फेफड़ों में अन्तःपूयता (Emphema) होना, फेफड़ों में क्षय रोग के कीटाणुओं का संक्रमण होना आदि कारणों से उरःक्षत (खून का वमन) होता है। निर्धन एवं, अस्वच्छ वायुमन्डल में निवास करने वाले बच्चों को यह रोग पकड़ लेता है।

उपचार :- इस रोग में पहले रक्तरोधक (खून रोकने वाली औषधियों का प्रयोग करना चाहिए। तत्पश्चात रोगानुसार औषधि का प्रयोगकर रोगी को रोग मुक्त करना चाहिए।

रक्तरोधक पेटेन्ट आयुर्वेदिक औषधियाँ

स्टिपलान टेबलेट (हिमालय) - 2-3 टिकिया आवश्यकतानुसार जब तक रक्त बन्द न हो देते रहें। रक्त थमने के बाद 1-2 टिकिया दिन में 2-3 बार दें। 

पोजेक्स फोर्ट टिकिया (चरक) - विभिन्न कारणों - रक्त प्रदर, गर्भाशय से होने वाला रक्तस्त्राव, गर्भ निरोधक औषधियों के खाने या लूप से होने वाला रक्तस्राव, खून की उल्टी होना, नाक से होने वाला रक्तस्त्राव, बवासीर व आप्रेशन के समय कम से कम खून निकलने के लिए इसे 2 टिकिया दिन में 3 बार से 6 बार तक अथवा तीव्रता के आधार पर दें।

सेमीलाइन लिक्विड (डाबर) - इसको आश्यकतानुसार 5 से 10 मि.ली. तक प्रयोग करायें। पत्रक देखें।

हेमसूल कैपसूल (इन्डोजर्मन, बम्बई) - रक्तस्राव होने पर 1-2 कैपसूल, दूध, ठन्डा पानी या फलों के रस के साथ प्रयोग करायें।

पाइन्ट कैपसूल (आयुलेक्स) - 2-3 कैपसूल दिन में 3 बार । किसी भी प्रकार के रक्तस्राव में प्रयोग करायें। 

चिनिमयको टेबलेट (डीशेन) – वयस्कों को एक से तीन टिकिया बच्चों को ½ से टिकिया-दिन में 3 बार प्रयोग करायें।

प्रवाल सूचीवेध (बुन्देलखन्ड, सिद्धि फार्मेर्सी, आदर्श) - उत्तम रक्तरोधक है। रोगी यदि अधिक कमजोर हो तो साथ में विटासिल इन्जेक्शन भी लगायें।

अर्थोन सूचीवेध (सिद्धि) - हर प्रकार के रक्तस्राव में 1 से 2 मिली. का प्रतिदिन अथवा आवश्यकतानुसार माँसपेशी में लगायें।

सुक्ति भस्म सूचीवेध (बुन्दलेखन्ड) - अर्थोन इन्जे की भाँति ।

एरन्ड सूचीवूध (बुन्दलेखन्ड, सिद्धि, मिश्रा) - उपरोक्त इन्जेक्शन की भाँति ।

स्पेशल मालती सूचीवेध (बुन्दलेखन्ड) - 2 मिली. का प्रतिदिन अथवा आवश्यकतानुसार माँसपेशी में दें।

नोट :- रक्तस्राव को रोकने के लिए फिटकरी का प्रयोग अति उत्तम है। बाकी उपचार यथा रोगानुसार करें। जैसे खाँसी में खाँसी की दवा, छाती में दर्दनाशक आदि दवायें दें।

फुफ्फुस - प्रदाह (PNEUMONIA)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- फेफड़ों के तन्तुओं के प्रदाह को न्योमोनियां कहते हैं। यदि एक फेफड़े पर न्योमोनियों हो जाये तो उसे सिंगल न्योमोनियां कहते हैं और यदि दोनों फेफड़ों पर रोग का आक्रमण होता है तो उसे डबल न्योमोनियां कहते है।

    इस रोग में रोगी को 105 डिग्री या कभी-कभी इससे भी अधिक ज्वर हो जाया करता है । सवेरे के समय ज्वर कुछ कम हो जाता है। रोग की तेजी के अनुसार 5 वें, 8 वें, 12 वें अथवा 14 वें दिन बुखार उतर जाता है। ज्वर के समय रोगी जोर-जोर से सांस लेता है। सूखी और कष्ट दायक खाँसी भी होती है। खाँसी की पहली हालत में बलगम नहीं निकलता, बाद में लाल जंग के समान या लाल रंग का बलगम निकला करता है। रोगी के बोलते ही खाँसी बढ़ जाया करती है। नाड़ी पहले बहुत तेज तथा पूर्ण रहती है किन्तु धीरे-धीरे नाड़ी जन्दी चलने वाली, कमजोर तथा अनियमित हो जाती है। रोगी को भूख नहीं लगती है। जीभ सूखी और काली सी हो जाया करती है। इस रोग में रोगी को करवट बदलने और सांस लेने में भी तकलीफ हुआ करती है।

   शरीर का कमजोर हो जाना, सर्दी-गर्मी का परिवर्तन, एकाएक पसीना रूककर सर्दी लग जाने से अथवा हृदय तथा वृक्कों (गुर्दा) (किडनी) के कुछ रोगों से या संक्रामक रोगों के कारण भी न्योमोनियां रोग हो जाता है। न्योमोनियां जिधर के फेफड़े में होती है। उस ओर छाती मे तेज दर्द भी रहता है। रोग की भयंकर अवस्था में रोगी को प्रलाप होकर अन्त में मूर्च्छा हो जाती है। रोगी के हृदय की गति रुकने या दूसरे फेफड़े में शोध उत्पन्न होने पर मृत्यु भी सम्भव है और प्रायः रोग के प्रारम्भिक दस दिनों के अन्दर ही हुआ करती है।

उपचार - यथा सम्भव रोगी को आराम की अवस्था में रखें। रोगी अधिक चले-फिरे अथवा उत्तेजित न हो, रोगी जैसे रहना, बैठना, लेटना, उठना चाहे, उसे बैसा ही रखे अर्थात आराम के मामले में रोगी के इच्छा का निरादर न करें। छाती पर सफेद तेल (तारपीन का तेल ) या पुराने घी की मालिश करायें अथवा बारसिंहा के सींग को घिसकर छाती पर लगायें। आक के पत्तों को सरसों का तेल लगाकर गर्म करके सीने पर बाँध सकते है।

बच्चों की पसली चलना (Primary Brenchopneumonia)

जैसा कि ऊपर अवगत कराया जा चुका है कि फेफड़ों के सूज जाने से न्यूमोनिया हो जाता है। बच्चों को यह रोग अधिक होता है, इसलिए यहाँ बच्चों से सम्बन्धित इस रोग का उल्लेख भी परमावश्यक है। बच्चों को विशेषतः ब्रान्कों न्यूमोनियाँ अधिक होता है। यह तीन वर्ष कम आयु के बच्चों को अधिक होता है। निरन्तर नजला-जुकाम, खांसी, चेचक, खसरा आदि रोग होने के बाद कमजोर बच्चों को यह रोग अपनी गिरफ्त में ले लेता है।

   बच्चों के इस रोग के प्रधान लक्षणों में-खाँसी, ज्वर जो कभी के ऊपर हल्का तथा कभी तेज होता है, खाँसी के खुश्क दौरे जिस से परेशान होकर बच्चा रोने लग जाता है। सांस लेते समय पसलियों के नीचे और आमाशय मुख गड्ढ़ा पड़ जाता है। नाक के नथुने धौंकनी की भांति बड़ी तेजी के साथ फैलते और सिकुड़ते हैं।

   कोई सा भी लक्षण एकाएक शुरू हो जाता है। छाती में एक ओर दर्द होने पर बच्चा ना समझी में पेट दर्द बतलाता है, खाँसी आने पर बाहर निकलने वाले बलगम को ना समझी के कारण थूकने की बजाय उसे निगल लेते है। छोटे बच्चों में न्यूमोनियां में मानसिक रोग के लक्षण जैसे-आक्षेप, सरसाम एवं वमन (कै) आदि शुरू हो जाते हैं। यह रोग बच्चों को 3 से 9 दिनों तक रह सकता है। कई बार इस रोग से ग्रसित बच्चे की दशा अत्यन्त गम्भीर हो जाया करती है। बच्चा बेहोश होता है किन्तु देखते-देखते उसकी दशा सुधर जाती है और दूसरे ही दिन बिस्तर में बैठा वह हँस और खेल रहा होता है। इस रोग में बच्चा अपने पेट के दाहिनी ओर दर्द बतलाता है। कभी-कभी चिकित्सक बच्चे की बात मानकर इस दर्द को एपेन्डीसाइटिस (Appendicitis) (आन्त्रपुच्छ शोथ) समझ बैठते हैं और उसी की चिकित्सा करने लगते हैं, जो कि सर्वथा गलत है।

नोट:- दूध पीते बच्चों में समय पर इस रोग की चिकित्सा न मिलने से मृत्यु भी हो सकती है।

न्योमोनिया नाशक प्रमुख औषधियाँ

कस्तूरी टेबलेट (झण्डु) – आवश्यकतानुसार 1-2 टिकिया प्रयोग करायें।

व्हीपेक्स सीरप (चरक) - कफ-खाँसी में बलगम निकालने वाली स्वादिष्ट औषधि है। इसके सेवन से ऐंठन दूर होकर सांस लेने में आसानी होती है। यह न्यूमोनियां, दमा, सूखी खाँसी, ब्रोंकायटिस, अस्थमा (श्वास नली में शोथ) कफ खांसी आदि में वयस्कों को 3-3 चम्मच दिन में 3 बार दें। बच्चों को एक चम्मच दिन में 3 बार एवं शिशुओं को आधा-आधा चम्मच दिन में 3 बार दें।

कर्पूर सूचीवेध (मिश्रा) - 1-2 मिली. मांस या शिरा में दें। 

कर्पूर कस्तूरी सूचीवेध (बुन्दलेखन्ड) - 4-4 घन्टे पर रोग की अवस्थानुसार मांस में लगायें।

कस्तूरी (सूचीवेध) (मिश्रा व सिद्धि ) - 1-2 मि.ली. मांस, शिरा या चर्म में दें। आवश्यकतानुसार 4 घन्टे बाद पुनः दे सकते है।

कल्याण सुन्दर - सूचीवेध (बुन्देलखन्ड ) - कुचला सूचीवेध (सिद्धी व बुन्दलेखन्ड) कैम्फर इन ईथर (बंगाल) चन्द्रोदय सूचीवेध (बुन्देल खन्ड) न्योमोनिया स्पेशल - सूचीवेध (बुन्दलेखन्ड) मृगनाभि सूचीवेध (प्रताप) मृगशृंग भस्म सूचीवेध (बुन्दलेखन्ड) रजन सिन्दूर सूचीवेध (बुन्देलखन्ड) लोवेलीन सूची- वेध (सैन्डौज) मृग सूचीवेध (आदर्श) आदि सूचीवेध मांसपेशी में वयस्कों को 1-2 मि.ली. तथा बच्चों को ½ से 1 मि.ली. दें।

      छाती (सीना) पर मालिश हेतु झन्डू बाम, हमदर्द बाम, विक्स वैपोरव, अमृतांजन, औरियन्ट बाम, डाबर बाम, (पेनबाम- डाबर) नूरानी तेल, दुर्वेशी तेल आदि की मालिश करवाने से लाभ मिलता है। सेहुंड के पत्तों को गर्म करके बँधवाया जा सकता है।

     इसके अतिरिक्त वृहत कस्तूरी भैरव रस, महालक्ष्मी बिलास रस आदि शास्त्रीय औषधियों का प्रयोग भी लाभप्रद है। यदि रोगी साँस जोर-जोर से ले रहा हो तो वृहत कास चिन्तामणि रस का भी प्रयोग अति हितकर है।

रोगावस्थानुसार निमोनियां की चिकित्सा

अतिसार - वृहत कस्तूरी भैरव रस 1 ग्राम, कनक सुन्दर रस 2 ग्राम, सिद्ध प्राणेश्वर 1 ग्राम, श्वासकास चिन्तामणि रस 1 ग्राम की कुल 13 मात्राऐं बनायें। प्रत्येक 6-6 घन्टे पर एक मात्रा गर्म जल या मधु से दें। लाभप्रद है।

बेचैनी एवं प्रलाप में - वृहत चिन्तामणि रस 1 ग्राम, ब्राह्मी वटी 1 ग्राम, श्वास कास चिन्तामणि रस 1 ग्राम, अभ्रक शतपुटी 3 ग्राम (कुल 17 मात्राएँ) प्रत्येक मात्रा - 6 घन्टे बाद मर्म जल या मधु से सेवन करायें।

हाथ-पैर शीतल होने पर - पहले वाले योग में वृहत कस्तुरी भैरवरस 1 ग्राम और डालकर 21 मात्रायें बनालें तथा उसी विधि से ही सेवन करायें। 

विशेष श्वास वेग में - प्रलाप (बेचैनी) वाले योग में वृहत कस्तूरी भैरव रस 1 ग्राम और मिलाकर 21 मात्राऐं बनाकर उपर्युक्त विधि से ही दें। 

पेट फूलने पर - चतुर्मुख रस 200 मि.ग्रा. शंख भस्म 400 मि.ग्रा., हरड़ चूर्ण 2 ग्राम, 5 ग्राम मधु से दें।

नाड़ी दुर्बलता पर - चन्द्रोदय रस नं. एक या सिद्ध मकरध्वज रस नं. 1 1-2 रत्ती, मोती भस्म (सर्वोत्तम) 3 रत्ती (कुल तीन मात्राऐं) मधु के साथ घोल बना कर दें।

हृदय की दुर्बलता में - जवाहर मोहरा नं. 1, तीन रत्ती, सिद्ध मरकध्वज नं. 1-तीन रत्ती, अभ्रक भस्म शतपुटी तीन रत्ती, मोती पिष्टी (सर्वोत्तम) तीन रत्ती लेकर कुल 5 मात्राऐं बनाकर उपरोक्त विधि से ही दें। हृदय दौर्बल्य में हमदर्द का 'दवा उल मिस्क' (मात दिल) जवाहर वाली खास का प्रयोग भी लाभप्रद है।

फुफ्फुसावरण प्रदाह (PLEURISY)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- इसमें फेफड़े के ऊपरी भाग की या वक्ष के प्राचीर के चारों ओर की झिल्लियों में प्रदाह के साथ-साथ बुखार, कम्प, सूखी खाँसी और खाँसने के समय पससियों में जोर का दर्द पैदा हो जाता है। एक तरह का जीवाणु ही इस रोग का मुख्य कारण है। सर्दी लगना, ऋतु परिवर्तन, एकाएक पसीना रुकना, यक्ष्मा रोग भोगना, नश्तर लगवाने या गिरने या वक्ष में चोट, क्षय, खसरा, न्यूमोनियां, इन्फ्लूएन्जा, आमवात ज्वर, फेफड़ो का रोग (कैन्सर का फोड़ा) आदि कारणों से यह रोग हो जाया करता है।

      नई प्लूरिसी में पहले जाड़ा लगता है, कँपकँपी आती है, फिर बुखार आता है तथा वक्ष में सुई चुभने जैसी पीड़ा होती है। दर्द प्रायः बहुत तेज होता है। ऐसा लगता है। कि जैसे कोई छुरी या चाकू से काटे डाल रहा है । यह दर्द स्तन की घुन्डियों के पास होता है। दर्द के कारण सांस तक लेने में बैचेनी महसूस होती है। बुखार 100 से 106 डिग्री तक होता है। प्लूरिसी के दर्द की यह विशेषता है कि उसमें पैनी छुरी चुभने जैसी भयंकर पीड़ा होती है तथा साथ में सूखी खाँसी भी रहती है। रोगग्रस्त स्थान पर आघात करने पर एकदम ठोस आवाज होती है। इस रोग में अधिकांशतः रोगी हार्टफेल होने के कारण मरते हैं, किन्तु 70 से 80% रोगी ठीक हो जाते हैं।

उपचार - पीने के लिए गर्म चाय तथा गर्म पानी दें। गर्म जल से स्नान करायें। अरारोट, सागूदाना व व्वाल खाने को दें। सर्दी न लगने दें। यह रोग दुबारा होने पर मुश्किल से ठीक होता है। प्लूरिसी की बीमारी से यक्ष्मा भी हो सकता है। पेट में मल न जमने दें। पेट जितना साफ रहेगा, रोगी उतनी ही शीघ्र स्वस्थ व निरोग हो जायेगा।

      सीने पर पुराना घी, बेलाडोना प्लास्टर या बिन्टोजिनों की मालिश करायें। 1 अन्डा, हल्दी, शहद मिलाकर सीने पर लेप करके गाज कर दें। बाकी इलाज रोगानुसार एवं दर्द नाशक औषधियों से न्योमोनियां की तरह करें। रोगी स्वस्थ हो जायेगा साथ ही हृदय को बल देने वाली दवादयां दें जैसे-मृगनाभि सूची- वेध, कस्तूरी सूचीवेध आदि दें।

स्वर यन्त्र प्रदाह (LARYNGITIS)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- स्वर यन्त्र की श्लैष्मिक झिल्ली का फूलना और लसदार श्लेष्मा निकलने को स्वरयन्त्र प्रदाह, स्वरयन्त्र - शोथ तथा - स्वर यन्त्र की सूजन अंग्रेजी में लेरिन्जाइटिस आदि नामों से जाना जाता है।

      यह रोग सर्दी लग जाने से, पानी में भीगने से, गले में धूल के कण या धुऐं के जाने से, सीलन भरी जगह में रहने से तथा जोर से गाना गाने एवं व्याख्यान अथवा भाषण आदि देने से (जिसमें स्वरयन्त्र का अधिक व्यवहार होता है) तथा एकाएक हवा की गति परिर्वतन आदि कारणों से होता है।

       इस रोग में गले में दर्द होता है तथा गला कुटकुटाता है, गले में जलन होती है । ज्वर, स्वरभंग, प्यास, अरुचि एवं श्वास लेने में तकलीफ आदि होती है। स्वर की श्लैष्मिक झिल्ली फूल उठती है । लसदार बलगम निकलता है। आवाज बिगड़ जाती है। कुछ भी खाने-पीने पर उसे निगलने में तकलीफ पैदा हो जाती है। उचित चिकित्सा व्यवस्था से शीघ्र तथा अधिकतम 8-10 दिनों में ही रोगी - ठीक हो जाता है।

नोट :- यदि रोग समूल नष्ट न हुआ तो पुराना पड़कर बहुत दिनों तक तकलीफ देता है।

उपचार - नये रोग में रोगी को गरम कमरे में रखें तथा किसी प्रकार की पतली तथा ठन्डी चीजें खानें को न दें। गले का भीतरी अंश कोमल रखने के लिए ग्लसरीन या जैतून का तेल (Olive Oil) अथवा ग्लैसरीन तथा रेक्टी फाइड स्प्रिट बराबर मात्रा में मिलाकर गले में लगायें। रोगी को बोलने न दें तथा उसे ठन्ड से बचायें एवं गरम रखें। गले में राई की पुल्टिस लगा सकते हैं। खौलते जल में यूकेलिप्टस आयल डालकर रोगी को बराबर बफारे दें।

       पुराने रोग में गले में फलालैन आदि के वस्त्र न लपेटने दें, क्योंकि ऐसा करने से लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। पैर का तलवा हमेशा सूखा और गर्म रखें, पैरों में मौजे पहनायें रखे। गले का भीतरी भाग साफ रखें। अमृतधारा की कुछ बूंदे उबलते जल में डालकर सुंघाने से अथवा विक्स वैपोरव का बफारा देने से भी लाभ होता है। पंसारी के यहाँ से मुलहठी लाकर छोटे-छोटे टुकड़े कर रोगी को चुसवाने से भी लाभ होता है।

श्वास रोग, दमा (ASTHMA)

रोग परिचय, लक्षण एवं कारण :- फेफड़े में वायु वहन करने वाली नालियों की छोटी-छोटी पेशियों में जब अकड़न भरा संकोच पैदा होता है, तभी श्वास लेने में तकलीफ होने लगती है। इसी अवस्था को श्वास रोग, दमा, तमक श्वास तथा अंग्रेजी में अस्थमा के नाम से जाना जाता है। यह आम तौर पर प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को हुआ करता है। रोगियों को प्रायः यह रोग अपने माता-पिता अथवा दादा-दादी से ही प्राप्त होता है। कभी-कभी नाक की कोई बीमारी रहने से अर्बुद, उपदंश, बोंक्रायटिस अथवा जरायु डिम्बकोष की बीमारी होने से तथा स्नायु विकारों से एवं धूल के कण एवं धुँआ आदि के वातावरण में अधिक रहने से भी यह बीमारी हो जाती है।

        बच्चों को यह रोग फेफड़े एवं श्वास प्रणाली में कफ जमकर सूख जाने से होता है। कफ के द्वारा अवरोध पैदा होने से सांस लेने में उन्हें का कठिनाई होती है। और दम फूलने लगता है। पर्शुकायें तेजी से गति करने लगती हैं। इतना ही नहीं, बच्चा बुरी तरह से हाँफने लगता है। बच्चों को यह दमा की बीमारी अक्सर खसरा बुखार अथवा कुकुर खाँसी होने के बाद होती है।

        दमा की खांसी में तनाव के कारण श्वास-प्रश्वास में कष्ट होता है। यह तनाव कभी कम या कभी बहुत ज्यादा हुआ करता है। जिस दमें के रोगी को कफ (बलगम) ज्यादा नहीं निकलता उसे सूखा दमा या शुष्क श्वास (Dry Asthma) कहते हैं। जिस में रोगी को बहुत ज्यादा कफ निकलता है, उसे तर दमा या आद्र श्वास (Hamisid Asthma) कहते हैं। इसमें दौरे के समय रोगी न तो सो सकता है, न बैठ सकता है तथा खुली हवा के लिए बैचेन हो उठता है। ऐसे में तीव्र ज्वर, दस्त तथा श्वास कष्ट होता है। गले में सायं सायं की आवाज होती रहती है। खाँसते समय जब कुछ बलगम निकल जाता है, तब रोगी को राहत महसूस होती है। रोगी दौरे के समय लेट नहीं सकता आमतौर पर वह बेचारा तकिया को गोद में रखकर सामने की ओर झुककर बैठा रहता है। श्वासकष्ट जब अधिक बढ़ जाता है तब रोगी का चेहरा नीला पड़ जाता है, वह पसीने से भीग जाता है यह रोग किसी रोगी को शरद ऋतु (जाड़े में) तो किसी को यह बीमारी वर्षा ऋतु (बरसात) में सताती है। इस रोग से ग्रसित रोगियों को मृत्यु-भय चिकित्सीय दृष्टि से नहीं होता है। क्योंकि दमा के रोगी की मृत्यु आसानी से नहीं होती। वह दीर्घ-जीवी हुआ करता है। बचपन का दमा अक्सर जवानी में ठीक हो जाता है तथा जवानी में उत्पन्न हुआ दमा मृत्यु पर्यन्त बना रहता है।

उपचार - प्रसिद्ध चिकित्सक घोष के अनुसार चमगादड़ का मांस धूप में सुखाकर बुकनी बनाकर 6 ग्राम शुद्ध मधु (शहद) के साथ नित्य सबेरे देने से स्थाई लाभ मिल जाता है। तिलचट्टा (एक प्रकार का कीड़ा जो तेल चाटता है) की चाय बनाकर नित्य पीने से दमा के रोगी अच्छे होते देखे गये हैं।

       इस रोग के रोगी का अधिक सोना, शीतल तथा अम्लीय चीजों का खाना-पीना, रात को भरपेट भोजन करना, अधिक धूप में चलना-फिरना, भारी गुरुपाकी भोजन, गुड़, तेल, लाल मिर्च, लहसुन, अन्डा, मांस, मछली, चना आदि न दें। ऋतु परिवर्तन के समय विशेष सावधानी बरतने का निर्देश दें। इस रोग के रोगी को नंगे बदन में हवा लगना भयानक एवं घातक है। धूल व धुँआ रहित मकान (कमरा) - जहाँ कृत्रिम स्वच्छ हवा आती हो, रोगी को ऐसे स्थान पर रखना लाभदायक है। घरेलू औषधि में फिटकरी का पाउडर 10 से 15 ग्रेन तक जीभ पर रख देने से दमा का वेग बन्द हो जाता है।

       दमा के रोगी को खुराक में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। उसे रात्रि को हमेशा सूरज छिपने से पूर्व ही तथा भूख से कुछ कम भोजन करना चाहिए। अजीर्ण या कब्ज बिल्कुल नहीं होने देना चाहिए। दम न चढ़ने पाये। इसके लिए पेट साफ रखें। पेट साफ रखने के लिए रात को स्वादिष्ट विरेचन या विरेचन गुटिका तथा प्रातः काल अविपत्तिकर चूर्ण या टिकिया या मग्नेशिया साल्ट सप्ताह में दो बार देना चाहिए। प्रातः तथा सायं मन्दाग्नि चूर्ण तथा भोजन के बाद 'अग्नि तुन्डी वटी' देना चाहिए ।

      खुराक में दूध अधिक दें। रात को सोने के वक्त एक ड्राम रक्त शोधन क्वाथ दमा के रोगी को पिलाने से दमा का हमला नहीं होता।

      दमा उठने के वक्त शुरू में अच्छी तरह उबाली हुई काफी या बड़ी मात्रा में सोडा (स्वर्जिकाक्षार) देना चाहिए। साधारण दम तो हरड़ का अलवेह या वासावलेह के साथ श्वास कुठार रस देना चाहिए। यदि दमा का दौरा तीब्र गति से हो तो शान्ति न होने तक प्रत्येक 2-2 घन्टे में धत्तुरीन एक भाग पानी मिला कर देना चाहिए और यदि 2-3 मात्राऐं धत्तुरीन की पेट में पहुँचने पर भी रोगी को लाभ न हो तो अफीम दें। दम बैठ जाने (आराम हो जाने के बाद रोगी की छाती में कफ मालूम हो तो द्राक्षासव के साथ अग्नि रस देना चाहिए। दमा के रोगी के दम यदि अधिक चढ़ता हो तो पानी को उबाल कर रोगी के सामने रखकर पानी के बाफ में श्वास दिलवायें। धतूरे की बीड़ी पिला सकते हैं। छाती तथा कमर पर गरम पानी की सेंक करवा सकते है।

अन्य घरेलू पेटेन्ट प्रयोग

• मोर के पंख जलाकर भस्म बनायें। इसे 2 से लेकर 4 ग्रेन तक प्रतिदिन पान में रखकर दमा के रोगी को खिलवायें। श्वास कष्ट दूर हो जायेगा।

• आक (अकौआ) की कोपलें 15 ग्राम, देशी अजवायन 10 ग्राम लें। दोनों को बारीक पीसकर 25 ग्राम गुड़ मिलायें, फिर 2-2 ग्राम की गोलियाँ बनालें। एक गोली नित्य प्रातःकाल दमा के रोगी को निहार- मुँह खिलवायें। रोग शीघ्र - समूल नष्ट हो जायेगा ।

• बहेड़े की छाल 250 ग्राम, नौशादर फुलाया हुआ 15 ग्राम, सोना गेरू 10 ग्राम सभी को कूट-पीसकर छानकर मिलालें। इसको 3-3 ग्राम प्रातः सायं शहद के साथ सेवन करने से श्वास-कास निःसन्देह मिट जाता है।

• बांसे का रस, अदरक का रस, शहद प्रत्येक 6-6 ग्राम मिलाकर दीर्घकाल तक सेवन करायें। खाँसी, दमा तथा भूख न लगने की अमृत तुल्य औषधि है। - रक्ताल्पता वाले रोगी इसके सेवन से लाल सुर्ख हो जाते है।

• शुद्ध आंवलासार गन्धक 50 ग्राम, काली मिर्च 50 ग्राम दोनों को बारीक पीसकर कपड़छन करके शुद्ध-साफ काँच की शीशी में रख लें। प्रतिदिन 4 से 6 ग्राम तक घृत के साथ सेवन करवायें। श्वास-कष्ट और खाँसी को नष्ट करने के लिए अद्वितीय प्रयोग है। कुछ दिन के सेवन से ही कफ निकल जाता है।

• कायफल और काकड़ासिंगी 3-3 ग्राम शहद के साथ चटाने से दमा रोग में लाभ होता है।

• आक की मुखबन्द कली 20 ग्राम, पीपल 10 ग्राम, सैंधा नमक 10 ग्राम को पीसकर झाड़ी के बेर समान गोलियाँ बनाकर प्रातः सायं पानी के साथ खाने से श्वास का रोग निश्चित रूप से ठीक हो जाता है।

• हल्दी 10 ग्राम, राई 10 ग्राम, लोटन सज्जी 10 ग्राम, पुराना गुड़ 80 ग्राम सबको कूट-पीसकर बेर के समान गोलिया बनाकर 40 दिन खिलायें। श्वासकी बीमारी जाती रहेगी।

दमा नाशक प्रमुख औषधियाँ

सोमा टेबलेट, सीरप (मार्तन्ड) - 1-2 टिकियाँ प्रतिदिन सुबह शाम तथा रात को गरम पानी या गर्म दूध के साथ प्रयोग करायें। 

डिकोक्सिन टेबलेट (एलारसिन) - 2-2 टिकिया दिन में 3 बार एक सप्ताह तक दें। इसके बाद 1-1 टिकिया 2-3 सप्ताह तक दें।

श्वासांतक कैपसूल (गर्ग) – साधारण अवस्था में एक-एक कैपसूल जल के साथ अथवा कनकासव के साथ दें। श्वास के अधिक वेग में 1-1 कैपसूल प्रत्येक 6-6 घंटे पर दे सकते हैं।

श्वासकास चिन्तामणि रस एवं श्वास कुठार रस (अनेकों आयुर्वेदिक कम्पनियों द्वारा निर्मित होती है) – श्वास रोग में अधिक लाभप्रद है। साथ में मिले पत्रक के अनुसार प्रयोग करायें। 

स्पाजमा लिक्विड (चरक) - यह सीरप तीव्रगाही असरदायक है। श्वास, ऐंठन व सांस की अन्य तकलीफों को दूर करता है तथा शमनकारी है। यह श्वास, सूखी खाँसी एवं वातरोग आदि में भी उपयोगी है। ब्रोंकियल अस्थमा, ब्रोन्काइटिस, व सांस की तकलीफ में 1 चम्मच दिन में 3 बार बच्चों को दें तथा वयस्कों को 2-3 चम्मच दिन में 3 बार दें।

दबदमा ( डाबर ) - 10-15 बूंद ठन्डे पानी से दिन में 3 बार दें। सुबह के दौरे से बचाव हेतु रात को सोते समस 10-15 बूंद दें। 

एज्मोडीन (एसेप्टिक) तथा मेक्सिप पेय (मैक्सो) – वयस्कों को 2-2 चम्मच तथा बच्चों को आधा चम्चच दें।

अस्थमा सिगरेट (सिन्थोकम) - बीड़ी-सिगरेट पीने वाले दमा के रोगी को यह सिगरेट बहुत लाभ पहुँचाती है। इससे दम बढ़ता नहीं, बल्कि घटने लगता है। जवाहर मोहरा सूचीवेध (मिश्रा एवं बुन्दलेखन्ड) शिरा में दें।


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