पौरुष ग्रन्थि का बढ़ जाना (ENLARGEMENT OF PROSTATE GLAND), लिंग की चमड़ी उलट जाना, लिंग मुण्ड का न खुलना, (PHIMOSIS), जन्मजात निरुद्धता (CONGENITAL PHIMOSIS)

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अस्थि भंग के स्थान पर एवं उसके आस-पास के उससे प्रभावित क्षेत्र में असहनीय दर्द होता है, जो उस भाग के हिलने डुलने या हिलाने डुलाने पर दर्द और भी ज्यादा हो जाता है। उस जगह पर बहुत मामूली दबाव भी रोगी को असहनीय दर्द देता है। और सूजन भी आ जाती है। अस्थि भंग वाले स्थान की शक्ति नष्ट हो जाती है। रोगी उस भाग को हिलाने-डुलाने में असमर्थ हो जाता है तथा उस स्थान की आकृति भी बदल जाती है। स्थान भेद से वह स्थान कहीं दबा हुआ और कहीं उठा हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। हड्डी के टुकड़ों का रड़कना भी स्पष्ट रूष से सुना जा सकता है तथा रोगी द्वारा महसूस भी किगा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अस्थि भंग वाला भाग शरीर के दूसरे भाग के, उसी भाग से भिन्न और छोटा दिखलायी पड़ता है। यह बात मुख्म रूप से टॉंग एवं हाथ (भुजा) के अस्थि भंग में स्मष्ट रूप से देखी जाती है।
अधिक समय तक गरम स्थान या गरम वस्तु के सामने रहने से शरीर में जल और लवण की कमी होकर "ताप-क्षीणता" उत्पन्न हो जाती है। इसके फलस्वरूप चक्कर, भ्रम, कमजोरी, सिरदर्द, हृदयगति का बढ़ जाना, ऐंठन (Cramps) मूत्र अल्पता, अर्ध बेहोशी (Stupor) इत्यादि लक्षण प्रकट हो जाते हैं। ऐसे रोगी को तुरन्त ठन्डी जगह में लाकर उचित आराम दें तथा दोनों पैरों को बिस्तर से ऊपर कर दें, हृदय को ताकत देने वाले पेय पदार्थ यथा-फलों का रस, दूध, तथा मिश्री का पानी तथा औषधियाँ प्रयोग कराना चाहिए। आवश्यकतानुसार नारमल सैलाइन विद ग्लकोज 5% के 2 या 3 को बूंद-बूंद करके शिरागत चढ़ायें। अतिरिक्त इसके रोगी के शरीर की खूब मालिश भी कराना अत्यन्त ही लाभदायक है।
केवल पागल कुते के काट लेने मात्र से तत्काल मनुष्य पागल नहीं हो जाता है। पागलपन का विष तो 2-3 दिनों के बाद धीरे धीरे अपना प्रभाव उत्पन्न करता है। यदि एक माह के अन्दर ही ऐसे रोगी को "जिला अस्पताल" भेज दें जहाँ पागल कुत्ते के काटने की चिकित्सा की जाती है, तो रोगी मनुष्य के पागल होने की संभावना कम हो जाती है। पागल कुत्ते के काटे की पहचान करने के लिए कुत्ता काटे हुए जख्म पर एक रोटी का टुकड़ा रखकर पांच-सात मिनट के बाद किसी अन्य कुत्ते को वह रोटी खिलावें और यदि वह कुत्ता रोटी न खाये तो निश्चित समझें कि-काटने वाला कुत्ता पागल ही था। इसी प्रकार यदि ठन्डा पानी डालने से कुत्ता काटे हुए व्यक्ति का शरीर गरम हो जाये तो भी पागल कुत्ते का विष ही समझना चाहिए। पागल कुत्ता काटे व्यक्ति की साधारणतः एक सप्ताह के बाद दशा बदलती है। कभी-कभी सातवें सप्ताह या सातवें मास में विष का प्रभाव दिखायी पड़ने लगता है। ऐसे रोगी को हाइड्रोफोबिया (जल से डरना) जल पीने से तथा देखने दोनों से डरना (क्योंकि जल में पागल कुत्ता दिखाई देता है) तथा गले की नसों में गांठे (विष के कारण) उत्पन्न होने से पानी न पी सकना, अन्धकार में रहना, शरीर पर लालिमा आना, क्रोध, चिन्ता इत्यादि प्रमुख लक्षण होते हैं।
उपचार- कपड़े की पतली पट्टी लेकर घाव के ऊपर के भाग में बांधकर उसमें एक लकड़ी की डन्डी देकर उसे इतना मरोड़ कर कस दें कि उससे घायल को तकलीफ होने लगे। जैसे-पिन्डली में काटे तो उससे ऊपर अर्थात पांव में घुटने तथा घाव के बीच में बांधने हेतु निर्देशित करें। घाव चुसवायें तथा इस प्रक्रिया से जो कुछ भी मुंह में आये उसे थुकवा दें। यह क्रिया कई बार करवायें। बाद में 'एल्कोहल' से खूब भली प्रकार कुल्ले करवा कर चूसने वाले व्यक्ति की मुख-शुद्धि करवा दें। रोगी के जख्म पर गरम जल डालना तथा रक्तस्राव (रुधिर बहना) जारी रखें।
बिजली की धारा दो प्रकार की हुआ करती है। (1) ए.सी. धारा (2) डी. सी. धारा। इनमें डी.सी. धारा अच्छी हुआ करती है। क्योंकि इसके झटके से आदमी दूर जाकर गिरता है। जबकि ए.सी. धारा से छू जाने पर वह व्यक्ति को अपनी ओर खींचती है। जिस अंग से बिजली की तारें स्पर्श करती हैं, वह अंग तो जल ही जाता है। शरीर के अन्य भागों में भी बिजली प्रवेश कर जाती है। फलस्वरूप बिजली का जबरदस्त झटका लगकर मनुष्य अक्सर बेहोश हो जाया करता है। बिजली का झटका लगते ही सर्वप्रथम बिजली का मैन स्विच बन्द कर देना चाहिए अथवा कनेक्शन (Connection) काट देना चाहिए।
नोट- धातु की वस्तुओं या गीली-चीजों (जैसे हरी लकड़ी या पानी से भीगी लाठी, डन्डे आदि से) बिजली में चिपके आदमी को बिजली की तारों में मारकर नहीं छुड़ाना चाहिए। आक्रान्त व्यक्ति को हाथ की सूखी हुई लकड़ी की छड़ी की सहायता से खींचना चाहिए अथवा बिजली के तारों में छड़ी मार कर आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाना चाहिए अथवा रबड़ के दस्ताने पहन कर तथा पैरों में भी रबड़ का जूता पहनकर आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाना चाहिए इसके अभाव में काठ की (सूखी) बनी वस्तुओं जैसे पटला, खडाऊ, लकड़ी की कुर्सी, तख्त, स्टूल, छोटी मेज इत्यादि पर खड़े होकर रबड़ के दस्ताने पहनकर आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाना चाहिए। ऐसी प्रक्रिया अपनाने से आक्रान्त व्यक्ति को छुड़ाने वाला व्यक्ति बिजली के धक्के से सुरक्षित रहेगा।
बिजली का धक्का लगते ही पीड़ित व्यक्ति को तुरन्त बिजली से दूर हटाने की कोशिश करनी चाहिए। अन्यथा उसके शरीर का सारा रक्त (खून) जल जायेगा जिसके फलस्वरूप उसकी तत्काल ही मृत्यु भी हो सकती है। जैसे ही आघात लगा हुआ व्यक्ति बिजली के तारों से अलग हो जाये वैसे ही तुरन्त उसके हृदय की क्रिया को उत्तेजित करने के लिए उसके सम्पूर्ण शरीर पर ठन्डे पानी के छींटे मारने चाहिए तथा यदि आवश्यकता हो तो "कृत्रिक श्वासोच्छवास" हेतु क्रिया करनी चाहिए। आक्रान्त व्यक्ति की घबराहट को दूर करने हेतु अत्यन्त विनम्रता पूर्वक दिलासा दिया जाना आवश्यक है। मूर्छा दूर करके 'सदमे' की चिकित्सा करनी चाहिए। उसे गरम दूध या गरम चाय पिलायें तथा जले हुए अंगों का भी यथावत उपचार करना चाहिए।
कभी-कभी अत्यधिक दुख, शोक, चोट या कमजोरी के कारण। दम घुटने या सांस रुकने से भी बेहोशी हो जाती है। हिस्टीरिया और मृगी रोग से पीड़ित व्यक्ति को भी बेहोशी होती है। बेहोशी की स्थिति में व्यक्ति को अपने बारे में कुछ भी पता नहीं चलता है, उस मस्तिष्क इन्द्रियों का ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। बहुत देर तक मूर्छित रहने के फलस्वरूप उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
उपचार- बेहोश रोगी को भली प्रकार लिटाकर तथा उसके शरीर के पहने हुए कपड़े उतार कर उसे स्मैलिंग साल्ट (Smelling Salt) सुंघायें तथा कुछ होश में आने पर 10-20 बूंद ब्रान्डी डालकर 1 या 2 घूंट पानी मुँह में डालें। बेहोश व्यक्ति को होश में लाने हेतु मुंह पर शीतल जल के छींटे मारें, खूब हवा करायें क्योंकि ऐसे रोगी को शुद्ध वायु की अधिक आवश्यकता होती है, उसके पास भीड़ एकत्र न होने दें। रोगी के पैरों को नीचा तथा सिर को ऊँचा रखें ताकि सिर की ओर रक्तसंचार अधिक और सुगतमापूर्वक हो सके। यदि पीड़ित व्यक्ति का चेहरा पीला पड़ गया हो तो भी उसके सिर को ऊँचा करें और यदि चेहरा लाल हो तो यह क्रिया न करके मात्र उसको चित्त लिटाये रखें।
यदि जल में डूबने से बेहाशी आई हो तो रोगी को चित्त न लिटाकर बल्कि पेट के बल उल्टा लिटायें उसकी गर्दन एक ओर कर दें, ताकि वह आसानी से सांस ले सके।
हिस्टीरिया या मृगी के कारण बेहाशी हो तो-शीतल जल के छींटे न मारें। चाहें किसी भी कारण से बेहोशी हो, रोगी को बेहोशी की हालत में चाय, दूध और पानी आदि (पेय द्रव) कतई न दें तथा होश में आ जाने पर भी उससे बातचीत न करें, बल्कि उसे आराम से लिटाये रखना चाहिए।
किसी अकस्मात दुर्घटना के फलस्वरूप नाड़ी संस्थान के निष्क्रिय हो जाने के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसे 'सदमा' के नाम से जाना जाता है। ऐसे रोगी की नाड़ी जल्दी, क्षीण होकर अनियमित रूप से चला करती है। स्वास-प्रश्वास भी स्वाभाविक रूप से न चलकर, ऊपर ही ऊपर (Shallow Breathing) जारी रहता है। शरीर का तापमान भी पहले की अपेक्षा कम हो जाता है। रोगी का चेहरा भी फीका और चिन्तायुक्त दृष्टिगोचर होता है।
नोट- सदमे की स्थिति चूंकि अन्य दुर्घटनाओं के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है, अत: इसकी चिकित्सा भी अन्य दुर्घटनाओं के ही साथ करना चाहिए। बेहोशी दूर करने के सभी उपाय 'मूर्छा-बेहोशी' के अन्तर्गत जो ऊपर लिखे हैं, उन्हें ही सदमें में भी प्रयोग में लायें।
दम घुटने पर रोगी छटपटाता है तथा सांस लेने के लिए मुँह खोलकर हाँफता हुआ सांस लेता है, ताकि सांस लेने में कोई रुकावट न हो। इसलिए रोगी के कमरे की समस्त खिड़कियां और दरवाजे खोल देने चाहिएं तथा भीड़ जमा न होने देनी चाहिए। यदि किसी के मुँह में कोई चीज अटक जाने के फलस्वरूप दम घुटने लगा हो तो-पीठ के दोनों कन्धों के बीच में जोर-जोर से घूंसा मारें, यदि इस प्रक्रिया से भी लाभ न हो तो बलपूर्वक रोगी का मुँह खोलकर तथा दो अंगुलियां उसके गले में डालकर अटकी हुई चीज अपनी ओर खींच कर निकालने का प्रयास करें अथवा ऐसा प्रयास करें कि अटकी हुई चीज श्वासनली से हटकर आहार नली में चली जाये। यदि गले में सूजन के कारण रोगी का दम घुट रहा हो तो उसके गले की सिंकाई (सेंक) करायें। यदि दम घुटने का कारण गरमी हो तो साफ-स्वच्छ तथा हवादार और ठन्डे स्थान पर लिटायें एवं बर्फ चुसवायें, यदि रोगी को कै (वमन) होने लग जाये तो उसका सिर एक ओर को झुका दें। यदि पानी में डूबने के कारण दम घुटने की शिकायत हो तो घड़े पर उल्टा लिटाकर रोगी के पेट का भरा हुआ पानी निकालें।
विशेष नोट- पानी में डूबे हुए व्यक्ति को किसी तरह जब डुबने से बचाकर पानी से बाहर निकाल लिया जाता है तो वह जिन्दगी और मौत के बीच पल-पल संघर्षरत होता है। ऐसे रोगी की जीवन रक्षा हेतु एक क्षण भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। ऐसे रोगी का एक मात्र उपाय बनावटी (कृत्रिम) सांस देना है। उसके मुँह से पानी निकालकर, उसे पेट के बल लिटा देना चाहिए, उसके पेट में भरे हुए जल को निकालने की कोशिश करें। इसके लिए-छाती के नीचे एक पतला सा तकिया रखकर, उसकी जीभ खींचकर मुँह में एक तरफ रखकर, दोनों हाथ जितने अधिक ऊपर (ऊंचे) उठ सके, ऊपर उठा दें तथा रोगी का सिर बराबर फर्श (पृथ्वी, जमीन) से लगा रहे। दोनों हाथ ऊपर उठाते समय, छाती दबाकर कई बार हिलाना चाहिए, इस प्रक्रिया से पेट में भरा हुआ जल निकल जायेगा। इसके बाद रोगी को (पलटकर) पीठ के बल सुलादें। कन्धे के नीचे तकिया देकर, सिर को थोड़ा नीचा कर दें। फिर उसके सिर के पास घुटने टेंककर बैठ जायें, रोगी के हाथों की दोनों कलाइयों को पकड़कर-छाती के दोनों तरफ लगायें फिर जहां तक सम्भव हो सके, रोगी को सिर की तरफ खींचे, इसके बाद छाती की ओर (तरफ) लायें, जब तक सांस स्वभाविक रूप से न चलने लग जाये, तब तक प्रत्येक मिनट में कम से कम 10-12 बार यही प्रक्रिया जारी रखें। इस प्रक्रिया के समय इस बात का ध्यान रखें कि रोगी की जीभ मुँह में नहीं घुसनी चाहिए। आमतौर पर दो घन्टे तक यह क्रिया करने से जल में डूबे व्यक्ति की सांस स्वाभाविक रूप से चलने लग जाती है। क्रिया के अतिरिक्त रोगी के गीले कपड़े हटा देना चाहिए और गरम कपड़ों से ढंककर रोगी के शरीर को गरम रखने का प्रयास करना चाहिए।
चमकदार सर्प जहरीले तथा किसी भी रंग के धूमिल सांप विष रहित हुआ करते हैं। साँप के काटने से बने घाव को तथा रोगी की स्थिति को देखकर सावधानीपूर्वक निरीक्षण करके यह जानने का प्रयास करें कि सांप जहरीला था या रोगी मात्र भय का शिकार हो गया है। इस हेतु सर्वप्रथम साँप के काटे हुए स्थान (घाव) को देखना चाहिए। क्योंकि सर्प के जहर के दांत जोकि बहुधा दो होते हैं और यह जहरीले दांत उसके अन्य दांतों से अधिक मोटे और लम्बे भी होते हैं। यदि घाव के सारे छेद बराबर हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि सांप जहरीला नहीं था और यदि कुछ छेदों के अतिरिक्त इधर-उधर दो बड़े और गहरे छेद हों तो सांप को अवश्य जहरीला समझना चाहिए। रोगी को यदि मात्र भय हो अर्थात विष रहित सर्प ने काटा हो तो थोड़ा सा नौसादार और चूना (अमोनिया फोर्ट) सुंघाने से और थोड़ी सी अच्छी क्वालिटी की शराब पिला देने से ही वह अच्छा हो जाता है, किन्तु उसके कटे घाव की देख-भाल एवं चिकित्सा अति आवश्यक है, ताकि घाव में सैप्टिक न हो जाये। यदि किसी को विषैले सांप ने काटा हो तो-शीघ्रता से घाव के ऊपर कठोर (खूब कसरकर) पट्टी बांधकर (जैसा कि कुत्ता काटने के रोग में लिखा जा चुका है) के अनुसार विषैले खून को हृदय (दिल) में फैलने से रोकना नितान्त आवश्यक है। इसके लिए विष को घाव में से चूसें और जो भी निकले, थूकते जायें विष चूसकर फेंकने वाला व्यक्ति "एल्कोहल" से कुल्ले करके अपने मुँह को भली भांति "शद्ध" कर लें। फिर घाव को खुरचकर "पोटाश परमैग्नेट" को अच्छी तरह से उस में भर दें। हृदय को ताकत देने वाली औषधियां प्रयोग में लायें।
अन्य प्रयोग- सर्प दंशित व्यक्ति के घाव के ऊपर बन्ध लगाकर, कसकर पट्टी बाँधने के बाद, सर्पदंशित घाव को खुरचकर कुछ चौड़ा करके मुर्गी के बच्चे (चूजों) का प्रबन्ध करें 1 चूजे को लेकर उसकी गुदा जख्म में सटाकर रखें, इस प्रक्रिया से जब चूजा अपनी सांस-प्रश्वास लेगा तब उसकी गुदा में सर्प दंश का विष समाहित होता चला जायेगा, फलस्वरूप विष के कारण मुर्गी का चूजा मर जायेगा जब चूजा मर जायेगा। इसी विधि से दूसरे चूजे को प्रयोग में लायें। इस प्रकार यही क्रम जारी रखें। भयंकर से भयंकर विषधारी सर्पदंशित रोगी को विष रहित कर भला चंगा करने में 40-50 चूजों या इनसे बहुत कम चूजों की आवश्यकता होती है। यह प्रयोग अनेकों बार का परीक्षित है, किन्तु इस प्रयोग से धन न कमाएँ।
धन्यवाद!
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